ओझल हो रही स्मृति, सिमट रहा इतिहास। बॉट निहारे पूर्वज, करके हमसे आस।।
महानालेश्वर शिव मंदिर एवं मठ - मेनाल एवं चाहमान शासक पृथ्वीराज द्वितीय राजस्थान के भीलवाड़ा से 70 किलोमीटर दूर मांडलगढ़ के निकट ऊपर माल पठार के पश्चिमी छोर पर स्थित मेनाल इतिहास, पुरातत्व, पर्यटन, प्रकृति और धार्मिक आस्थाओं का मिलन स्थल है। प्रकृति की खूबसूरत जल तरंगों का अनुपम सौंदर्य, शैव साधना का प्राचीन स्थल और अनसुने इतिहास की गाथाओं का त्रिवेणी संगम है मेनाल के प्राचीन देवालय और मठ। यहां एक बड़ा नाला बहता है जिस कारण यहां बने शिव मंदिर को महानालेश्वर शिव मंदिर कहते हैं। घने वनों में कल कल करती झरनों से गुंजायमान मेनाल एक मुख्य ऐतिहासिक स्थल है। चक्रवर्ती चाहमानो के काल की स्थापत्य और मूर्ति शिल्प से शोभित मेनाल शैव साधना के रहस्यों को छिपाएं हुए हैं। मेनाल शैव धर्म का केंद्र रहा है क्योंकि चौहानों के इष्टदेव भगवान शिव ही है। मेनाल को चाहमानो के बिजोलिया अभिलेखों में महानाल कहा गया है। महानाल का अधिपति यह शिवालय महानालेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। महानाल से अपभ्रंश होकर मेनाल पड़ा और यही नाम जग प्रसिद्ध हुआ। मेनाल का मुख्य महानालेश्वर देवालय झरने के एक तरफ मजबूत किले बंदी के अंदर निर्मित है। मुख्य द्वार दो मंजिला ऊंचा है और छतरियों गुम्बद से अलंकृत है। परिसर के अंदर कई खंडित मंदिर है। भगवान शिव को समर्पित मुख्य महानालेश्वर शिव मंदिर भूमिज शैली में निर्मित है, महानाल शिव मंदिर का निर्माण अजयमेरू के चौहान शासक महाराजा पृथ्वीराज द्वितीय (1167- 1169ई.) द्वारा करवाया गया था, जो जगदेव के पुत्र थे। जगदेव के बाद उनके भाई विग्रहराज चतुर्थ और फिर विग्रहराज के पुत्र अपरगांगेय ने शासन किया। धोद में रूठी रानी मंदिर में मिले एक शिलालेख के अनुसार, पृथ्वीराज ने शाकंभरी के राजा को हराया था। इससे संकेत मिलता है कि पृथ्वीराज ने अपरगांगेय को गद्दी से उतार दिया और अजयमेरू के शासक बन गए। बिजौलिया शिलालेख में मेनाल का उल्लेख एक तीर्थ स्थल के रूप में मिलता है। यह विशाल मंदिर पश्चिमाभिमुख् है। मंदिर गर्भगृह, अंतराल और मंडप में विभक्त है। गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। समय की मार से मंडप की छत क्षतिग्रस्त हैं इसलिए इसे लोहे की खम्बो का सहारा दिया गया है। मंदिर का शिखर उरु श्रृंगो से शोभित कलश आमलक युक्त है। शुकनास पर गज शार्दुल की भव्य प्रतिमा स्थापित है। मंदिर का मंडप समवर्णा शिखर से अलंकृत है। सामने पुन गज शार्दुल की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर की दीवार पर गरुड़ पर सवार चतुर्भुज विष्णु की मूर्ति लगी है। मंदिर के एक गर्भगृह, एक अंतराल, समवर्ण छत वाला एक रंगमंडप तथा सामने की ओर नंदी-मंडप स्थित है। मंदिर के सम्मुख मंडप में नंदी की भव्य कलात्मक प्रतिमा स्थापित है। मंदिर की रथिकाओ पर विभिन्न देवी देवताओं, अप्सराये, सामाजिक जीवन, पौराणिक आख्यानों को प्रदर्शित करते शिल्प सुशोभित है। मंदिर के पास ही शैव आचार्यों के निवास हेतू दो मंजिला मठ बना हुआ है। नंदी की पीठ पर एक पंक्ति का लेख लिखा है। मुख्य मंदिर की उत्तर-पश्चिम दिशा में 2 अन्य लघु मंदिर बने है, जिनका निर्माण लगभग 8वी सदी में हुआ था ये क्रमशः भगवान श्रीगणेश और मातागौरी को समर्पित हैं। यहां की मूर्तियों और अभिलेखों में मेनाल के इतिहास की कई घटनाएं दर्ज है जिसका अपना विशेष महत्व है। चाहमान शासक महाराजाधिराज अर्णोराज का भी 1137 ईस्वी का अभिलेख मेनाल से मिला है। एक अन्य अभिलेख से विदित होता है कि मेनाल के मठ का निर्माण चाहमान शासक पृथ्वीराज द्वितीय के शासनकाल में उनकी रानी सुहिया देवी के निर्देश पर गुरू संत भावब्रह्मा द्वारा 1169 ई. में बनवाया था। बिजोलिया शिलालेख में लिखा है कि पृथ्वीराज ने वसंतपाल नामक शासक से मनसिद्धिकरी नामक हाथी प्राप्त किया था। डॉ दशरथ शर्मा इस वसंतपाल की पहचान ललित-विग्रहराज नाटक में वर्णित एक राजा से करते हैं। इस नाटक के अनुसार, वसंतपाल विग्रहराज की प्रेमिका देसलदेवी के पिता थे। शर्मा का मानना है कि अपरगांगेय देसलदेवी के पुत्र थे। इस प्रकार, वसंतपाल संभवतः पृथ्वीराज का शत्रु था और उसके अधीन था पृथ्वीराज द्वितीय का पहला शिलालेख हांसी शिलालेख 1167 ई. का मिला था, उनका शासन काल 1165 से 1169 ई तक रहा है। तुर्कों के आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने के लिये उन्होंने हांसी के दुर्ग पर अपना अधिकार सुदृढ कर लिया। हांसी शिलालेख के अनुसार, उन्होंने अपने मामा किलहाना को आशिका किले (आधुनिक हांसी) का प्रभारी नियुक्त किया, ताकि इसे हम्मीरा (अमीर) से बचाया जा सके। "हम्मीरा" की पहचान गजनवी राजा खुसरो मलिक से की जा सकती है, जो उस समय लाहौर को नियंत्रित करता था। पृथ्वीराज द्वितीय ने लाहौर के तुर्क शासक खुसरू मलिक को पराजित किया था। हांसी शिलालेख में यह भी कहा गया है कि किलहाना ने पंचपुरा नामक शहर को जला दिया था। इतिहासकार दशरथ शर्मा पंचपुरा की पहचान आधुनिक पंजौर से करते हैं। पंचपुरा के शासक ने पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर ली थी और उन्हें एक महंगा मोती का हार भेंट किया था। पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु संभवतः उत्तराधिकारहीन हुई, जिसके कारण उनके चाचा सोमेश्वर चौहान ने उनका उत्तराधिकार ग्रहण किया, जो सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के पिता थे। ओझल हो रही स्मृति, सिमट रहा इतिहास। बॉट निहारे पूर्वज, करके हमसे आस।। © आलेख - दयालसिंह चौहान सिलारी
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